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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

महानताके बीज

 

( १ )

यूनान देशके थ्रेस प्रान्तमें अब्डेरा नगरमें एक अनाथ बालक लकड़ियाँ काटकर लाता और बाजारमें बेचकर अपना पेट भरता था। दिनभर जीविका-उपार्जनमे ही उसका समय व्यतीत हो जाता था।

एक दिन एक भला आदमी लकड़ियोंके बाजारसे होकर निकला। उसने देखा एक बालक अपने सामने लकड़ियोंका एक छोटा गट्ठर रखे हुए बेचनेका प्रयत्न कर रहा है। एक बातने उसे विस्मित कर दिया। उसने देखा कि यह गट्ठर अन्योंकी अपेक्षा बड़ी सुन्दरता और कलापूर्ण ढंगसे बँधा हुआ था। भला आदमी तनिक ठहर गया और लड़केकी बुद्धि-परीक्षा लेनेके मन्तव्यसे उसने पूछा-

'लड़के! इस गट्ठरको तुमने स्वयं बाँधा है?'

'जी हाँ; मैं लकड़ी स्वयं काटता, स्वयं गट्ठर बाँधता और प्रतिदिन इस बाजार में बेचकर जीविका उपार्जन करता हूँ।' 

'क्या तुम इसे खोलकर फिर इसी कलापूर्ण ढंगसे बाँध सकते हो?' 

'जी हाँ यह लीजिये अभी बाँधे देता हूँ।'

यह कहते-कहते लड़केने लकड़ीका गट्ठर खोल डाला। लकड़ियाँ इधर-उधर बिखेर दीं। फिर तत्परता और सावधानीसे एक बड़ी लकड़ीको आधार बनाकर उसके इधर-उधर छोटी-छोटी लकड़ियाँ सजायीं। अन्तमें वैसे ही सुन्दरतापूर्ण ढंगसे लकड़ियोंका गट्ठर बाँध दिया। यह कार्य वह स्फूर्ति और बड़ी लगनसे गया। उतनी देरके लिये यहाँतक भूल गया कि वह किसी व्यक्तिके सम्मुख है और कोई उसकी क्रियाओं और आदतोंको सूक्ष्मतासे देख रहा है।

भले आदमीपर इस कलापूर्ण ढंगका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने देखा कि बालकमें छोटे कामको भी पूरी दिलचस्पी और कलापूर्ण ढंगसे पूरा करनेके दुर्लभ संस्कार हैं। ऐसे संस्कारोंवाले व्यक्ति ही विकसित होकर संसारके महापुरुष बनते हैं। उन्होंने सोचा 'इस लड़केके चरित्रमें जो महानताके बीज है, उन्हें विकसित होनेका अवसर देना चाहिये। हो सकता है कि यह बालक संसारका कुछ लाभ कर सके।' वे बोले-

'तुम हमारे साथ चलोगे? हम तुम्हें पढ़ाना चाहते हैं। सम्पूर्ण व्यय, भोजन, निवास आदिका भार हमारे ऊपर रहेगा।'

बालक कुछ देरतक सोचता रहा। उसकी तीव्र इच्छा थी कि वह किसी प्रकार पढ़े-लिखे। उसने कुछ विद्याध्ययन किया भी था। जीविका-उपार्जनसे जो समय बचता था, उसमें वह कुछ पढ़ा भी करता था। उसने अपनी स्वीकृति दे दी।

भले आदमीने उस बालकको अपने साथ ले लिया और उसकी सारी शिक्षा-दीक्षाका प्रबन्ध स्वयं किया। वह उसकी आदतोंपर मुग्ध था। स्वयं उसकी शिक्षाकी देख-रेख करता था और वह बालक विद्वान् बन गया। बड़ा होनेपर वह यूनानका महान् दार्शनिक पैथोगोरस कहलाया और भला आदमी जिसने एक दृष्टिमें बालकके अंदर छिपी हुई महानताको पहचाना था, वह था यूनानका विश्व-विख्यात तत्त्वज्ञानी डेमोक्रीटस!

पैथोगोरसके बचपनके जिस गुणपर डेमोक्रीटस मुग्ध हुआ था, (छोटे कार्योंमें भी पूरी दिलचस्पी और कलापूर्ण ढंगसे महानताका प्रदर्शन) वह देखनेमें साधारण-सा था, पर वास्तवमें महानताका बीज उसीके अंदर छिपा हुआ था। जो मनुष्य अपने छोटे-छोटे कार्योंतकको पूरी रुचि और कलापूर्ण ढंगसे करता है, वह बड़े कार्योंको और भी सावधानीसे पूरा करेगा और प्रशंसनीय होगा। जो छोटे-छोटे कामोंमें भी अपनी महानताकी छाप लगा देता है, दुनिया उसीको महत्त्व प्रदान करती है।

( 2 )

महानताके गुणोंके प्रदर्शनके लिये यह आवश्यक नहीं कि बड़े पैमानेपर ही आपके पास सामान हो या नाना प्रकारकी कला-सामग्री हो, विपुल विस्तार हो। कलाकारकी आत्मामें यदि सच्ची कलात्मकता वर्तमान है, तो वह अल्प साधनोंसे ही अपनी महानताका परिचय देने लगता है।

महात्माजीने एक बार एक लेख लिखा था 'झाड़ू देनेकी कला।' भला झाड़ू देने-जैसे क्षुद्र कार्यमें भी क्या कोई सौन्दर्य हो सकता है? उन्होंने दिखाया कि इस साधारण-से कार्यमें भी सावधानीकी आवश्यकता है।

आप अपने कार्योंको देखिये। सुबहसे शामतक किये जानेवाले कार्योंकी परख कीजिये और फिर स्वयं ही निर्णय कीजिये कि क्या उनमें आपने अपनी छिपी हुई महानताका परिचय दिया है? क्या उससे आपके चरित्रकी कलात्मकता, सुरुचि, सुव्यवस्था और संतुलन प्रकट होता है? क्या आपका कार्य आपके चरित्रके गौरवके अनुकूल है? क्या उससे आपकी असाधारण योग्यता, बुद्धि और सूझ-बूझ प्रकट होती है? क्या उसमें आपके व्यक्तित्वकी विशेषताएँ भरी हुई हैं?

एक बार एक इन्टरव्यू हो रहा था। इन्टरव्यू करनेवाले एक मेजको सामने रखे बैठे थे, सामने उम्मीदवारोंके लिये कुर्सियाँ रखी हुई थीं। एक-एक कर उम्मीदवार आते थे और कुर्सीपर बैठकर पूछनेवालोंके प्रश्रोंके उत्तर देते थे। उम्मीदवार एक-से-एक सुन्दर और आकर्षक वस्त्र, चमचमाते हुए पालिशदार जूते डाटे चले जाते थे। एक उम्मीदवार साधारण कपड़े पहिने हुए था। वह जब कमरेमें प्रविष्ट हुआ तो उसने देखा कि सामने मार्गमें एक पुस्तक पड़ी हुई है। उसने उस पुस्तकको उठाया और मेजके एक किनारेपर शिष्टतापूर्वक रख दिया। उसकी यह मनोवृत्ति देखकर इन्टरव्यू करनेवालोंको उसकी सावधानीपर विश्वास हो गया और वह चुन लिया गया। यह एक साधारण-सा कार्य था, पर इसीसे उसके चरित्रकी महानता प्रकट होती थी।

इसी प्रकार हमारी अनेक आदतों, कार्यों, वस्त्रों, शिष्टाचार, व्यवहार आदिसे हमारा व्यक्तित्व प्रकट हुआ करता है। जहाँ हमारी ये आदतें महानता दिखाती हैं, वहीं हमारे आनेवाले पतनकी भी सूचक हो सकती है।

मान लीजिये, बाजारमें बढ़िया केले बिक रहे है। हमारी तबीयत उनपर चल उठती है, पर जेब खाली! आदत हमारे ऊपर चढ़ बैठती है। दूकानदार हमारी जान-पहचानका है। उधार दे देगा। आइये, खरीद लें। हम मनोविकारपर नियंत्रण न कर उससे चार केले उधार ले लेते है और देखते-देखते खा डालते हैं। केलेवालेके चार आने कितनी कम देरमें हमारे सिर चढ़ जाते है। अब उधार देते हुए हमें मन-ही-मन कुछ संकोच-सा होता है। जब कभी केलेवालेके पाससे निकलते है, कतरा जाते है, बचनेकी कोशिश करते है, उधार देना भूल जाते हैं, पैसे देनेको मन नहीं करता। इसी प्रकार छोटी-छोटी चीजें लेनेसे हमारी उधारकी आदत बढ़ जाती है। यही बढ़कर हमारे घरबार, जमीन, जायदाद, इज्जत आदिको नष्ट कर डालती है। ऋण आपका घातक शत्रु है, जो तनिक-सी शिथिलतामें आपको ले बैठता है।

इसी प्रकार और भी गंदी आदतें है। आपका मित्र सिगरेट पीता है। आपको भी पेश की जाती है। आप अनचाहे मनसे दो कश लगाते है। उन्हीं मित्रोंके साथ आपको यह आदत लग जाती है। सिगरेटके बाद पान, बीड़ी, मद्य इत्यादि एकके बाद एक गंदी आदत आपको शिथिल करती जाती है। आप प्रतिमास १५- २० रुपये पान-बीड़ीवालेको दे डालते हैं। फिर व्यभिचार आकर सर्वस्व नष्ट कर देता है।

यही बात और मनोविकारोंकी भी है। किसीने हमारा कहना न माना कि हम आवेशमें आकर गरम हो उठे। नाराजीसे हम घर भर डालते हैं। सबको खरी-खोटी सुनाते हैं। क्रोधका भूत हमारे साथ है। हम दूकानदार हैं, तो यह दुष्ट हमारी जिह्वाको उछालकर ग्राहकोंको बहका देता है। वे दूरसे ही भाग जाते है। यदि हम अफसर हैं, तो यह हमारे मातहतोंको असंतुष्ट रखता है। यदि हम रेलगाड़ीमें सफर कर रहे है, तो यह दुष्ट हमें चैनसे यात्रा नहीं करने देता। ऐसे ही अड़ियल, उत्तेजित या शक्की स्वभाव भी हमारा शत्रु ही है।

इस प्रकार हमारे चरित्रकी असंख्य छोटी-छोटी भूलें हमें नीचे गिराती रहती है। इनपर हम कोई ध्यान नहीं देते, पर वास्तवमें ये ही हमारे चरित्रके वारे-न्यारे करती रहती हैं।

महानता हमारे चरित्र और स्वभावमें प्रचुरतासे भरी पड़ी है। हमें चाहिये कि इसी पक्षपर मनन-चिन्तन कर इसे विकसित करें। तमोगुण हमारे अन्तःकरणमें मलिनता उत्पन्न करता है जिससे अशुभ विचार आते हैं। अतः अपने शुद्ध, सत् चित् आनन्दरूपका ही ध्यान करना चाहिये। चित्तमें शान्त, पवित्र और उच्च विचारोंको ही दृढ़तासे जमाइये। अपनी महत्ता, अपनी शक्ति, अपने दैवी गुणोंका चिन्तन करनेसे मस्तिष्क बलशाली बनता है और हृदयसे प्रफुल्लताका झरना प्रवाहित होने लगता है। अपने सत्त्वगुणपर विचार करनेसे आत्मबलकी वृद्धि होती है। आपकी सफलता इसी बातपर निर्भर करती है कि आप कितने अंशोंमें अपनी महत्ताका अनुभव करते हैं, अपने प्रति आपका कितना विश्वास है, आप उसको कितना व्यवहारमें प्रत्यक्ष करते हैं।

'उच्च तिष्ठ महते सौभगाय' (अथर्व. २। ६। २)

श्रेष्ठ बनना ही महान् सौभाग्य है। जो महानता खोजने और महापुरुष बननेमें प्रयत्नशील है, वही वास्तवमें धन्य है।

डा. दुर्गाशंकर नागरने महान् बननेके सूत्र इस प्रकार दिये है। एक-एक शब्द ध्यान देनेयोग्य है-

'क्या तुम संसारमें अपना अमर नाम छोड़ना चाहते हो? यदि ऐसा है तो आजसे ही महत्ताकी, बड़प्पनकी कल्पना अपने मनमें स्थापित कर दो और भावना करो कि तुम दिन-प्रतिदिन उच्च स्थितिमें प्रवेश कर रहे हो...प्रतिक्षण अपनी कल्पना अधिकाधिक पुष्ट करते रहो और निरन्तर दृढ़ प्रयत्नसे अवश्य तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध होगा। प्रत्येक सत्संकल्पमें आत्मशक्ति ओतप्रोत रहती है। हमारे महान् बननेका कारण हमारी आत्मामें ही विद्यमान है। बाहर कहीं खोजनेकी आवश्यकता नहीं है। मनुष्यकी महत्ताका लक्षण आत्मविश्वास है। महान् लक्ष्योंका चित्र मनमें रखनेसे कल्पना-शक्ति अधिकाधिक दृढ़ होकर विशाल और बलवान् होती है। अपनी आत्माकी विशालताका चिन्तन करो। महानता ही तुम्हारा आदर्श है। अतः अपनी कल्पनाका मानसिक चित्र अपने विषयमें विशाल, महान् एवं सुन्दर बनाओ और दृढ़ प्रयत्न करो।

अपनी महानताके विचार मनमें दृढ़तासे जमा देना मनोभूमिमें महानताके बीज बो देना है। यही विचार-बीज कालान्तरमें अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होते है और आपकी महत्ताकी छाप आपके कुटुम्बियों, मित्रों, पड़ोसियों और मिलने-जुलनेवालोंपर जमा देते है। महानताका आन्तरिक विश्वास आपको आगे ढकेलनेवाली शक्ति है। इसे दृढ़तासे धारण कीजिये। जिस क्षेत्रकी महानता इष्ट हो, उसीका सर्वोत्कृष्ट रूप मनमें धारण कीजिये और अपने दैनिक जीवनसे प्रत्यक्ष कीजिये।

अपने-आपको तुच्छ समझना एक पाप है, आत्मपतन है। इसके भागी न बनिये। अपना तिरस्कार करना आत्महत्याका ही एक भेद है। अपनेको तुच्छ और नीच समझनेवाला व्यक्ति अपने चरित्रकी सर्वोच्च तथा परमोत्कृष्ट वस्तुकी जड़ काट रहा है। आत्मतिरस्कार-सम्बन्धी प्रत्येक विचार व्यक्तित्वकी शक्ति एवं उन्नतिको नष्ट करनेवाला भयानक मानसिक रोग है।

उठो, पुरुषार्थ करो!

अप्राप्यं नाम नेहास्ति थीरस्य व्यवसायिनः।

पुरुषार्थी धीरके लिये कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं।

भाग्य और प्रारब्ध मनुष्यके गुप्त मनमें एकत्रित नये-पुराने संस्कारोंका परिणाम है। जो संस्कार साधारण है, वे प्रत्यक्ष फल देनेवाले नहीं हैं और उन्हें संचित कर्म कहते हैं। इनका एक कोष निरन्तर मनमें रहता है। जो तीव्र और गहरे संस्कार हैं, वे जन्म-जन्मान्तरके फल देनेवाले हैं तथा उन्हींके बलपर जीवको जन्म मिलता है। इन्हीं गहरे संस्कारोंसे प्रारब्ध बनता है और निरन्तर हमें अप्रत्यक्ष रूपसे प्रभावित किया करता है। इस प्रकार हमारी आयु, पुरुषार्थ एवं उद्योग निश्रित होता है।

इस शरीरसे हम जो नये संस्कार डालते है उन्हें क्रियमाण संस्कार कहते है। यदि उनमें हमारा अहं रहता है, तो संचित संस्कारोंमें इनका भी योग बढ़ता जाता है। इनमेंसे प्रबल संस्कारोंके बलपर हमें अगला जन्म प्राप्त होगा। इस प्रकार संस्कार मिलते रहते है और नये-नये शरीर बनते जाते हैं।

शरीरसे यह प्रारब्ध लेकर हम जगत् में आते है। कुछ व्यक्तियोंके पास अच्छा भाग्य नहीं होता। इन्हें अपने पुष्ट और दृढ़ प्रयत्नोंसे कार्य लेना पड़ता है। इसे पुरुषार्थ कह सकते है। इसे दूसरे रूपमें यों कह सकते है कि विश्वमें तीन प्रमुख शक्तियाँ हैं-एक उत्पन्न करनेवाली, दूसरी पोषण करनेवाली, तीसरी संहार करनेवाली। इन तीनों शक्तियोंको ब्रह्मा, विष्णु महेश कह सकते हैं। इन शक्तियोंके और छोटे-छोटे भागोंकी कल्पना की गयी है। जिन्हें तैंतीस करोड़ देवता कहते हैं। इनका संकेत हमारे ऋषि-मुनियोनई किया है। इन असंख्य शक्तियोंसे कार्य लेनेको पुरुषार्थ कहते है। मन्त्रोंद्वारा भी इन शक्तियोंको अपने अनुकूल किया जा सकता है। इसे भी पुरुषार्थ कहते हैं।

प्रारब्ध संस्कार (संचित संस्कार नहीं) प्रेरणाके अनुसार सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तिके अनुसार उद्यम चुनेंगे। आजन्म कार्य करेंगे और स्वभावके अनुसार उसी उद्यमका कम या अधिक फल प्राप्त होगा। सत्त्वगुणीका सम्बन्ध दैवी शक्तियोंके साथ है, अतः उसे सर्वाधिक फल मिलेगा; रजोगुणीको मध्यम फल प्राप्त होगा। तमोगुणीको न्यून फल प्राप्त होगा। रजोगुणी और सत्त्वगुणीको जो फल होगा, वह थोड़े-बहुत अन्तरसे समान-सा होगा, पर रजोगुणी असंतुष्ट बना रहेगा। पुरुषार्थसे निर्बल संस्कार नष्ट किये जा सकते हैं और तीव्रतर संस्कारोंसे बहुत कुछ बदला जा सकता है।

उद्योग एक साधारण प्रयत्नमात्र है। जीवन-यात्राको सुखद और स्तर ऊँचा करनेके सब प्रयत्न उद्योगमें शामिल हैं।

पुरुषार्थहीन व्यक्तिको लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती। निठल्ले और आलसी एक प्रकारके पापी है; क्योंकि वे अपने पुरुषार्थका हनन करते हैं। उद्यमीका मित्र परमेश्वर है। उद्यम करनेसे अर्थात् मन, बुद्धि और शरीरसे निरन्तर कार्य लेनेसे मनुष्यके पुरुषार्थका विकास होता है।

जो चलता रहता है अर्थात् सक्रिय और प्रगतिशील जीवन व्यतीत करता है, उसका शरीर और जाँघे पुष्ट होती है। फल-प्राप्तिमें उसकी आत्मा संतुष्ट होती है। पुरुषार्थका पाप, दुश्चिन्ताएँ और भय पसीनेके साथ बह जाते हैं। पुरुषार्थ कर्मयोगीकी प्रार्थना है।

जो सब ओरसे प्रयत्न-विहीन, भयग्रस्त या आलस्यमें बैठ गया है, निश्चय जानिये, उसका भाग्य भी बैठ जाता है। जो मजबूतीसे श्रम करने और जीवन-संघर्षमें युद्ध करनेको तैयार है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है, सोनेवालेका भाग्य भी सो जाता है जबकि पुरुषार्थीका भाग्य निरन्तर गतिशील रहता है।

प्रकृतिकी ओर देखिये। उन्नत और आकर्षक प्रतीत होनेवाले सब प्राणी भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। मधुमक्षिका पुरुषार्थसे असंख्य पुष्पोंपर विचरणकर कण-कणसे मधु संचय करती है। पक्षी एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर उड़-उड़कर अपने प्रयत्नोंके ही फल चखते है। न उनके बाल-बच्चे ही कुछ देते है और न अनाजके कोठे ही भरे हुए है। प्रतिदिन पुरुषार्थका सहारा लेकर वे पंख फड़फड़ाते है और परमेश्वर उनके सच्चे प्रयत्नोंका उपहार प्रदान करते है। सूर्यके पुरुषार्थको देखिये-चलते-चलते थकनेकी बात कभी मनमें नहीं लाता। उसका जीवन पुरुषार्थका ज्वलन्त उदाहरण है। सरिताएँ नित्य नये वेग और उत्साहसे प्रवाहित होती रहती है। फिर आप निराश क्यों? आप अपनी महत्त्वाकांक्षाओंका क्यों दम घोट रहे हैं? अपने शरीर और इन्द्रियोंको क्यों अशक्त बना रहे हैं?

उठो, पुरुषार्थ करो। अपने लक्ष्यकी ओर सीधे चले चलो।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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